हिमाचल प्रदेश की हिमाच्छादित धौलाधार पर्वत श्रृंखला के प्रांगण में स्थित है भव्य प्राचीन शिव मंदिर बैजनाथ। वर्ष भर यहां आने वाले श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। माघ कृष्ण चतुर्दशी को यहां विशाल मेला लगता है जिसे तारा रात्रि के नाम से जाना जाता है। इसके अतिरिक्त महाशिवरात्रि और वर्षा ऋतु में मंदिर में शिवभक्तों की भीड देखते ही बनती है। पुरातत्व विभाग के संरक्षण में यह मंदिर देश के कोने-कोने से शिवभक्तों को आकर्षित करता है। कई विदेशी पर्यटक भी यहां आते है।
बैजनाथ मंदिर की पौराणिक कथा कुछ इस प्रकार है कि त्रेता युग में रावण ने हिमाचल के कैलाश पर्वत पर शिवजी के निमित्त तपस्या की। कोई फल न मिलने पर उसने घोर तपस्या प्रारंभ की। अंत में उसने अपना एक-एक सिर काटकर हवन कुंड में आहुति देकर शिव को अर्पित करना शुरू किया। दसवां और अंतिम सिर कट जाने से पहले शिवजी ने प्रसन्न हो प्रकट होकर रावण का हाथ पकड लिया। उसके सभी सिरों को पुनस्र्थापित कर शिवजी ने रावण को वर मांगने को कहा। रावण ने कहा मैं आपके शिवलिंग स्वरूप को लंका में स्थापित करना चाहता हूं। आप दो भागों में अपना स्वरूप दें और मुझे अत्यंत बलशाली बना दें। शिवजी ने तथास्तु कहा और लुप्त हो गए। लुप्त होने से पहले शिवजी ने अपने शिवलिंग स्वरूप दो चिह्न रावण को देने से पहले कहा कि इन्हें जमीन पर न रखना। अब रावण लंका को चला और रास्ते में गौकर्ण क्षेत्र (बैजनाथ क्षेत्र) में पहुंचा तो रावण को लघुशंका लगी। उसने बैजु नाम के ग्वाले को सब बात समझाकर शिवलिंग पकडा दिए और शंका निवारण के लिए चला गया। शिवजी की माया के कारण बैजु उन शिवलिंगों के वजन को ज्यादा देर न सह सका और उन्हें धरती पर रख कर अपने पशु चराने चला गया। इस तरह दोनों शिवलिंग वहीं स्थापित हो गए। जिस मंजूषा में रावण ने दोनों शिवलिंग रखे थे उस मंजूषा के सामने जो शिवलिंग था वह चन्द्रभाल के नाम से प्रसिद्ध हुआ और जो पीठ की ओर था वह बैजनाथ के नाम से जाना गया। मंदिर के प्रांगण में कुछ छोटे मंदिर हैं और नंदी बैल की मूर्ति है। नंदी के कान में भक्तगण अपनी मन्नत मांगते है।
महमूद गजनवी ने भारत के अन्य मंदिरों के साथ बैजनाथ मंदिर को भी लूटा और क्षति पहुंचाई। सन 1540 ई. में शेरशाह सूरी की सेना ने मंदिर को तोडा। क्षतिग्रस्त बैजनाथ मंदिर का फिर से जीर्णोद्धार 1783-86 ई. में महाराजा संसार चंद द्वितीय ने करवाया था। मंदिर की परिक्त्रमा के साथ किलेनुमा छह फुट चौडी चारदीवारी बनी हुई है जिसे मंदिर और बैजनाथ के ग्रामवासियों की सुरक्षा के लिए बनवाया गया था। यहां के कटोच वंश के राजाओं ने समय-समय पर मंदिर की सुरक्षा का ध्यान रखा। वर्ष 1905 में आए कांगडा के विनाशकारी भूकंप ने फिर से इस पूजा स्थल को क्षति पहुंचाई थी जिसे पुरातत्व विभाग ने समय रहते संभालकर मरम्मत करा दी थी। इस मंदिर के कई अवशेष आज भी धरती में धंसे हुए हैं। मंदिर में स्थित 8वीं शताब्दी के शिलालेखों से प्रमाणित होता है कि तब से दो हजार वर्ष पहले भी यहां मंदिर था। यह भी पता चलता है कि पांडव युग के इस शिव मंदिर का किसी प्राकृतिक आपदा के कारण 2500-3000 वर्ष पूर्व विनाश हो गया था। छठीं शताब्दी में हुए हमलों के पश्चात आठवीं सदी में मंदिर का पुनर्निर्माण हुआ। इस सदी में राजा लक्ष्मण चन्द्र के राज्य में दो भाई- मन्युक व आहुक हुए जो व्यापारी थे। इन दोनों शिव भक्तों ने शिवलिंगों के लिए मण्डप और ऊंचा मंदिर बनवाया। राजा और दोनों भाइयों ने मंदिर के लिए भूमिदान किया और धन दिया। इस पुनर्निर्माण का समय शिलालेखों में वर्ष 804 दिया गया है। समुद्रतल से लगभग चार हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित इस मंदिर के निर्माण को देखकर भक्तगण चकित रह जाते हैं कि शताब्दियों पहले इस दुर्गम स्थान में ऐसे भव्य पूजा स्थल का निर्माण कैसे हुआ। मंदिर के पीछे चंद्राकार पहाडियों और घने जंगलों का नैसर्गिक सौंदर्य हिमाच्छाति धौलाधार पर्वत श्रृंखला की स्वर्गिक सुंदरता में श्रृंगार का काम करता है। कन्दुका बिन्दुका (बिनवा) नदी प्रवाहरत है जो हजारों वर्ष पहले हुई प्राकृतिक आपदा से पहले मंदिर के स्थान से दूसरी ओर बहती थी। बैजनाथ का क्षेत्र भारत वर्ष में ही नहीं अपितु विश्व भर में हैंग ग्लाइडिंग के लिए सबसे उत्तम स्थान माना जाता है।
बैजनाथ पहुंचने के लिए दिल्ली से पठानकोट या चण्डीगढ-ऊना होते हुए रेलमार्ग, बस या निजी वाहन व टैक्सी से पहुंचा जा सकता है। दिल्ली से पठानकोट और कांगडा जिले में गग्गल तक हवाई सेवा भी उपलब्ध है।