वृंदावन। प्राचीन राधारमण देव जी का मंदिर सप्त देवालयों में प्रमुख है।
गोपीनाथ- निधिवन के बीच वाले मार्ग पर स्थित इस मंदिर में षट गोस्वामियों में से एक गोपाल भट्ट के उपास्य राधारमण जी विराजमान हैं। सादगी यहां का सौंदर्य है। भोग, राग और सेवा की परंपरा का यह अनूठा स्थान है। यहां राधा रानी की गादी सेवा होती है।
गौड़ीय संप्रदाय से जुड़े मंदिर के सेवायत Shri Dinesh Chandra Goswami ji ने बताया कि चैतन्य महाप्रभु की दक्षिण यात्रा में बैंकट भट्ट जी से उनका मिलन हुआ। बैंकट भट्ट के पुत्र गोपाल भट्ट, जो छोटी अवस्था में थे, ने पिता से महाप्रभु के साथ जाने के लिए कहा। चैतन्य महाप्रभु ने उन्हें वृंदावन जाकर भजन करने का निर्देश दिया। मंदिर के समीप ही प्राकट्य स्थ्ाल है जिसे डोल भी कहते हैं, वहां गोपाल भट्ट जी ने साधना की। वह शालिगराम की बटिया की पूजा करते थे। एक दिन भक्त ने उन्हें पोशाक भेंट की। गोपाल भट्ट जी के हृदय में विचार आया कि मैं तो इन्हें पोशाक धारण ही नहीं करा सकता। यह विचार तीव्रता में परिवर्तित हो गया। व्याकुलता की पराकाष्ठा हो गई। भक्त की साधना, आराधना के फल प्रतीक के रूप में वैशाख पूर्णिमा की रात्रि को आज से 471 साल पहले (सन् 1542) शालिगराम की िश्ाला से राधारमण जी प्रकट हुए। गोविंद देव, गोपीनाथ, मदनमोहन, तीनों के सम्मिलित दर्शन का सौभाग्य सिर्फ राधारमण के दर्शन करने से मिल जाता है। सेवा पूजा राधा रमणीय गोस्वामी करते हैं। हमारे यहां ठाकुर जी की सेवा को उत्सव के रूप में मनाया जाता है।
औरंगजेब के काल में राधारमण्ा जी के विग्रह को कुंए में छिपा दिया गया था। अन्य विग्रहों की तरह राधारमण ब्रज से बाहर नहीं गए।
प्राचीन परंपराओं को जीवंत रखे है मंदिर
सेवायत के अनुसार मंदिर में पांच सौ बरस पहले जो अग्नि प्रज्ज्वलित की गई थी, वो आज भी अनवरत जल रही है। उसी से ठाकुर जी की आरती, दीया व प्रसाद बनता है। विधिवत कीर्तन में ठाकुर जी को पद सुनाकर रिझाया जाता है। यहां अपरस की सेवा है। बाहर का भोग नहीं लगता। अपनी रसोई में जितना प्रसाद बनता है, उसका भोग ठाकुर जी को अर्पित किया जाता है। कुलिया भोग मुख्य है। चैतन्य महाप्रभु द्वारा गोपाल भट्ट को प्रदान किए गए वस्त्र और पट्टा आज भी मंदिर में मौजूद है। विशेष उत्सव कृष्ण जन्माष्टमी और जन्म पूनौ पर इनके दर्शन होते हैं। डोल में गोपालभट्ट जी की समाधि है।
शाह बिहारीलाल ने कराया कलात्मक मंदिर का निर्माण्ा
राधारमण जी के प्राकट्य के बाद उन्हें छोटे से मंदिर में विराजमान किया गया। संवत 1685 से लेकर 1750 तक ठाकुर जी एक सामान्य मंदिर में प्रतिष्ठित रहे। प्रभु दयाल मीतल की पुस्तक ब्रज का सांस्कृतिक इतिहास के अनुसार नवीन मंदिर का निर्माण लखनऊ के शाह बिहारीलाल ने संवत 1883 में कराया था।