एक अध्यात्मवेत्ता वैज्ञानिक: डा.सी.के. उपमन्यु
भक्तिमयी ब्रजभूमि की तिलस्मी तासीर का जीवन्त उदाहरण हैं-डा. चैतन्य कृष्ण उपमन्यु। वेश-भूषा, भाषा से बिंदास और स्वभाव से नि:स्प्रह अनुरागी-डा. सी.के. उपमन्यु की विलक्षण चिकित्सा-शैली और प्राच्य विद्याओं के प्रति उनकी तितीक्षा ने उन्हें अल्प समय में ही रोगात्र्तजनों तथा अध्यात्म-साधकों का चहेता बना दिया है।
सन् १९५६ में स्वतंत्रता दिवस (१५ अगस्त) के दिन मथुरा के प्रतिष्ठित और यशस्वी हौम्योपैथी चिकित्सक डा.आर.सी. उपमन्यु के घर छठी संतान के रूप में जन्म लेने वाले बालक चैतन्य के संस्कार-विचार और व्यवहार में भी स्वतंत्र चेतना का संचरण हर क्षण विद्यमान रहता है। उनके पिता होमियोपैथी एवं आयुर्वेद के चिकित्सा-विधाओं में निष्णात एक अध्ययनशील मनस्वी व्यक्ति के रूप में समाज में जाने-जाते थे। विदित हो कि दिवंगत डा. उपमन रसायन विद्या (कीमियागरी) के साथ अन्य प्राच्य विद्याओं के भी विद्वान थे। अस्तु घर में साधु, सन्यासियों, महात्माओं जैसी दिव्यात्माओं का आना-जाना लगा रहता था। चार पीडिय़ों से चली आ रही आयुर्वेद तथा पिता की होम्योपैथी के साथ-साथ प्राच्य विद्याओं की ओर भी रुझान रहने के फलस्वरुप, भारत की प्राचीन दुर्लभ एवं गूढ़ विद्याओं के शोध एवं संरक्षण को प्राथमिक उद्देश्य मानकर स्थापित किये गये इस संस्थान की गतिविधियों के संचालन, निर्वहन के प्रति लोगों में तरह-तरह की जिज्ञासाएं और कौतूहल उभरते रहे। प्रारंभ में इसे एक असंम्भव सा दुरुह कार्य मानने के कारण सहयोग के प्रति संकोच का भाव लोगों में व्याप्त रहा। किन्तु शनै:शनै: जिज्ञासुओं को समुचित समाधान मिलता गया और यह कारवां बढ़ता ही गया। सन् १९८३ में विधिवत इसकी कार्यकारिणी का गठन हुआ। जिसके अध्यक्ष १५ अगस्त १९९२ तक स्व. सुरेन्द्र मुकद्दम चतुर्वेदी रहे। १५ अगस्त १९९२ से १२ जुलाई १९९७ तक श्री घनश्यामेन्द्र नाथ भार्गव २५ जून १९९७ से २३ जनवरी २००१ तक सुरेन्द्रनाथ चतुर्वेदी 'काको जीÓ, २४ जनवरी २००१ से ३ मार्च २००१ तक श्री जी.पी. हरलालका तथा ४ मार्च २००१ से १५ अगस्त २००७ डा. चंद्रकिशोर पाठक इस पद पर आसीन रहे। १८ अगस्त २००७ से श्री राहुल गोपाल यादव इसके अध्यक्ष है। पिता की वैज्ञानिक सोच और माता शान्तिदेवी के आध्यात्मिक संस्कारों के सिंचन तथा चिकित्सा गुरू चाचा डा. जी.के. रॉव के लालन-पालन और मार्ग दर्शन ने उनके व्यक्तित्व को ऐसे अद्भुत साँचे में ढाल दिया कि आज उनके वैज्ञानिक-अध्यात्म के जोड़ का कायल होना पड़ता है। परिवार के अग्रजों की इसी क्षेत्र में सक्रियता के कारण वह स्वाभाविक रूप से इसी दिशा में उन्मुख हुए और परिवार की इस अमूल्य थाती को और भी संपन्न बनाने में जुट गए।
ब्रजभूमि में सिद्ध संतों और साधकों का आवागमन प्राय: बना ही रहता है। उपमन्यु परिवार के आतिथ्य-प्रेम के वशीभूत ऐसे महापुरुषों की अनुकम्पा यहाँ बार-बार बरसती रही। फलत: जिज्ञासु और प्रतिभा-संपन्न चैतन्य को उनका सत्संग-सानिध्य सहज ही प्राप्त होता रहा है। होमियोपैथी-चिकित्सा की विरासत तो उन्हें मिली ही, आयुर्वेद का भी उन्होंने गहराई से अध्ययन कर 'आयुर्वेद रत्नÓ की उपाधि प्राप्त की। पिता की देहमुक्ति के पश्चात् उनके औषधालय के सफलतापूर्वक संचालन के साथ ही उनके सामाजिक सरोकारों में वृद्धि होने लगी और वे कई सामाजिक-सांस्कृतिक और आध्यात्मिक संगठनों से जुड़ गए। सन् १९७८ में हौम्योपैथिक डिप्लोमा करने के पश्चात उन्होंने अपनी पैत्रिक क्लीनिक में अपने चाचा जी के साथ हौम्योपैथिक की प्रेक्टिस प्रारंभ की। सन् १९९३ में मथुरा के प्रतिष्ठित समाजसेवी महंत परमेश्वरदास आचार्य और न्यायमूर्ति गिरधर मालवीय ने उन्हें नगर के लोकप्रिय दातव्य औषधालय 'अ.भा.सेवा समिति औषधालयÓ (गांधीपार्क) के संचालन का गुरुतर दायित्व सौंपा। जिसका इन्होंने २००१ तक सफलता पूर्वक संचालन किया। वहां उन्होंने एक कीर्तिमान स्थापित किया। २००१ से गोविन्द नगर स्थित अपने निवास से ही सेवा प्रदान करने के पश्चात २८ मार्च २००५ से डीग गेट मथुरा कार्यालय पर अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।
इन सब व्यस्तताओं के बीच भी डा. चैतन्य कृष्ण की ज्ञानार्जन:क्षुधा शान्त न हो सकी और वे नित्य निरन्तर नये अनुभवों और उपलब्धियों के प्रति लालायित बने रहे। 'ब्रज-संस्कृति-रक्षा एवं उत्थान समितिÓ तथा 'लोक कल्याण समितिÓ जैसी लोकोपकारी संस्थाओं के गठन में सक्रिय भूमिका निभाने के बाद उन्होंने सन् १९८३ में अपने मानस के अमूर्त स्वप्न को मूर्तरुप प्रदान करते हुए 'प्राच्य विद्या संरक्षण एवं शोध संस्थानÓ का विधिवत् गठन किया। निरीह मानवता की निरपेक्ष सेवा के लिए सभी अनुकूल एवं प्रतिकूल मित्रों का योगदान निसंदेह अनुकरणीय और सराहनीय है।