भगवान ने "श्रीमद्भग्वद्गीता" रूप एक एसा अनुपमेय शास्त्र कहा है कि जिसमे एक भी शब्द सदुपदेश से खाली नहीं है ! श्री वेदव्यास जी ने महाभारत में गीता का वर्णन करने के उपरांत कहा है----
गीता सुनीता कर्तब्य किमन्यौ: शास्त्रविस्तेर: !
या स्वयं पद्द्नाभस्य मुखपद्दद्दिनी: सृता !!
' गीता सुनीता करने योग्य है अर्थात श्री गीता जी को भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भावसहित अंत: करण में धारण कर लेना मुख्य कर्तब्य है , जो की स्वयं पद्द्नाभ भगवान श्री विष्णु के मुखारविंद से निकली हुई है; फिर अन्य शास्त्रों के विस्तार से क्या प्रयोजन है ???
स्वयं श्री भगवान ने भी इसके महत्म्य का वर्णन किया है !!!
इस गीता शास्त्र में मनुष्य मात्र का अधिकार है,चाहे वह किसी भी वर्ण,आश्रम में स्थित हो:परन्तु भगवान में श्रद्धालु और भक्तियुक्त अवश्य होना चाहिए; क्योकि भगवान ने अपने भक्तो में ही इसका प्रचार करने के लिए आज्ञा दी है तथा यह भी कहा है की स्त्री,वैश्य,शुद्र और पापयोनि भी मेरे परायण होकर परम गति को प्राप्त होते है ;
अपने -2 स्वाभाविक कर्मो द्वारा मेरी पूजा करके मनुष्य परम सिध्दि को प्राप्त होते है ;इन सबपर विचार करने से यही ज्ञात होता है कि परमात्मा की प्राप्ति में सभी का अधिकार है !
परन्तु उक्त विषय के मर्मको न समझने के कारण बहुत से मनुष्य,जिन्होंने श्री गीताजी का केवल नाम मात्र ही सुना है,कह दिया करते है की गीता तो केवल सन्यासियों के लिए ही है; वे अपने बालको को भी इसी भय से श्री गीताजी का अभ्यास नहीं कराते कि गीता के ज्ञान से कदाचित लड़का घर छोड़ कर संयासी न हो जाये; किन्तु उनको विचार करना चाहिए कि मोह के कारन छात्र धर्म से विमुख होकर भिक्षा के अन्न से निर्वाह करने के लिए तैयार हुये अर्जुन ने जिस परम रहस्यमय गीता के उपदेश से आजीवन गृहस्थ में रहकर अपने कर्तब्य का पालन किया, उस गीताशास्त्र यह उलटा परिणाम किस प्रकार हो सकता है??????
अतएव कल्याणकारी इच्छा वाले मनुष्यों को उचित है कि मोह का त्याग कर अतिशय श्रद्धा -भक्ति पूर्वक अपने बालको को अर्थ और भाव के साथ श्री गीताजी का अध्ययन कराये एवं स्वयं भी इसका पठन और मनन करते हुए भगवान के आज्ञानुसार साधन करने में तत्पर हो जाए; क्योकि अति दुर्लभ मनुष्य शरीर को प्राप्त होकर अपने अमुल्य समय का एक क्षण भी दुःख मूलक क्षणभगुर भोगो के भोगने में नष्ट करना उचित नहीं है !!!!!!!