Devgarh, Uttar Pradesh - देवगढ़

Deogarh, Lalitpur, 284403
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उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले में बेतवा नदी के किनारे यह भारत प्रसिद्ध अतिशय दिगंबर जैन कला तीर्थ स्थित है। मध्य रेलवे की दिल्ली-बम्बई लाइन पर झाँसी और बीना जंक्शनों के बीच ललितपुर स्टेशन से,दक्षिण-पश्चिम में 33 किलोमीटर की दूरी के पक्के मार्ग पर बसों के द्वारा देवगढ़ पहुँचा जा सकता है। इसी रेल लाइन के एक कस्बे जाखलौन स्टेशन से भी 13 कि.मी. के पक्के मार्ग द्वारा देवगढ़ पहुँच सकते हैं।

इतिहास
देवगढ़ की प्राचीन मूर्तिकला यहाँ प्राप्त अभिलेखों के अनुसार संवत् 609 से 1876 तक की है। यहाँ प्रागैतिहासिक काल के अवशेष मिले हैं। गुप्त राजवंश का अधिकार प्रायः यहाँ आदि से अंत तक रहा है। गर्जर प्रतिहार नरेश भोजदेव के शासनकालीन संवत् 99 के एक अभिलेख से यह ज्ञात होता है कि इस स्थान का तत्कालीन नाम लुअच्छागिरि था। चंदेलवंशीय राजा कीर्तिवर्मा के मंत्री वत्सराज ने ही एक नवीन दुर्ग का निर्माण यहाँ कराया था। वर्तमान देवगढ़ दुर्ग के दक्षिण पश्चिम दुर्ग के दक्षिण पश्चिम में राजघाटी के किनारे,बारहवीं सदी के उत्कीर्ण अभिलेख से ज्ञात होता है कि वत्सराज ने इस स्थान का नाम कीर्तिगिरि रखा था। अनुमानतः 12वीं-13वीं शताब्दी में इस स्थान का नाम देवगढ़ पड़ा। देवगढ़ नाम पड़ने के संबंध में अनेक मान्यातयें हैं। लेकिन सहज और बोधगम्य यही लगता है कि यहाँ असंख्य देव मूर्तियाँ उपलब्ध होने कारण ही इस स्थान का नाम देवगढ़ पड़ा। कारण कुछ भी हो लेकिन देवगढ़ देखकर सहज जी यह अनुमान लगता है कि पूर्व में यहाँ मूर्तियों की रचना होती रही होगी और निर्माण का कार्य वर्षों चला होगा। उस स्वर्ण काल की गाथा देवगढ़ का प्रत्येक प्रस्तर कीता प्रतीत होती है। निकट स्थित जैन तीर्थ सेरोन जी,पावागिरि,बानपुर,मदनपुर, चंदेरी,थूबौन जी,पपौरा जी,अहार जी आदि 2 से देवगढ़ का शिल्पगत संबंध भी अवश्य रहा होगा।

नामकरण के संबंध में एक जनश्रुति यह भी है कि यहाँ देवपत और खेवपत नाम के दो भाइयों के पास,पारसमणि थी जिससे उन्होने अपार धन संपदा प्राप्त कर यहाँ दुर्ग और जिनालय बनवाये थे।परंतु जब तत्कालीन राजा को यह ज्ञात हुआ तो उन्होंने देवगढ़ पर चढ़ाई कर दी लेकिन उन दोनों भाइयों ने पारसमणि को समीप ही बेतवा के अथाह जल में फेंक दिया और राजा पारसमणि प्राप्त न कर सका। कहते हैं उसी देवपत के नाम पर उस क्षेत्र का नाम देवगढ़ पड़ा।

अतिशय देवगढ़ के संबंध में अनेक किंवदंतियाँँ भी प्रचलित हैं। कुछ बुजुर्ग लोग प्रत्यक्षदर्शी की तरह साक्ष्य देते हैं कि रात्रि में उन्होने उत्तंग और कलात्मक,देवालयों की ओर से आती हुई मनोहारी नृत्य-गान की मधुर ध्वनियाँ सुनी हैं,भक्त इन ध्वनियों को देवताओं द्वारा तीर्थकर की अर्चना करने का पौराणिक-पारम्ररिक उपक्रम मानते हैं। गणित सुन्दर देव-मूर्तियों का अतिशय तो यहाँ है ही अतः देवगढ़ अतिशय कला क्षेत्र है। भारत का यह प्रमुख सांस्कृतिक केन्द्र,उत्कृष्ट शिल्पकला युक्त अधिसंख्य मूर्तियों और प्राचीन मंदिरों के कारण खजुराहो से भी ज्यादा प्राचीन कला तीर्थ है। कतिपय हिन्दु मंदिरों के यहाँ होने के कारण समन्वय तीर्थ के रुप में भी देवगढ़ की ख्याति है।

पुरातत्व
देवगढ़ तीर्थ पर छोटे-बडे लगभग चालीस मंदिर,दो सौ से अधिक महत्वपूर्ण शिलालेख,कुल मिलाकर लगभग 500 अभिलेख और 19 पाषाण स्तम्भ (मानस्तम्भ सहित) दर्शनीय हैं। पर्वत पर के 31 मंदिर,कला सौष्ठव की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। यहाँ जैन हिन्दू संस्कृतियों का अद्भुत समन्वय हुआ है। जहाँ एक ओर कला संसार की अद्वितीय उपाध्याय की मूर्ति, अठारह लिपियों वाला अपूर्व और अद्भुत ’ज्ञान शिला’ नाम का शिलालेख, सरस्वती प्रतिमा, पंचपरमेष्ठियों की मूर्तियाँ कलापूर्ण मानस्तम्भ आदि,तीर्थकर ऋृषभदेव,सूक्ष्म शिल्प-संरचना वाली बाहुबली की मूर्ति,तीर्थंकर की माता के सोलह स्वपनों वाली मूर्ति आदि श्रमण संस्कृति के गौरवमयी कला बिम्ब आर्कषण के केन्द्र हैं,वहीं देवगढ़ स्थित बाराह का मंदिर,गुफा में शिवलिंग,सूर्य भगवान की मुद्रा,गणेश-मूर्ति,अनंतशायी विष्णु की मूर्ति,रामायण-महाभारत के पौराणिक दृश्य एवं मोक्ष आदि वैष्णव संस्कृति की कलात्मक कृतियाँ भी उल्लेखनीय हैं।

बुंदेलखंड़ की गंगा-वेत्रवत्री (बेतवा) सरिता के मुहाने पर बसा ग्राम देवगढ़,विन्धय पर्वत की श्रृंखलाओं में जड़ा हुआ सा प्रतीत होता है। यहाँ उत्तर दक्षिण में बिखरे लगभग 500 कि.मी. और पूर्व-पश्चिम में लगभग छह फर्लांग चैड़े जिस पर्वत पर देवगढ़ दुर्ग अवस्थित है, बेतवा उसी पर्वत के लगभग 400 फुट नीचे से कल-कल स्वर में अमृत जल का अनवरत प्रवाह करती है। पहाड़ी के नीचे एक दिगंबर जैन धर्मशाला के बगल में ही वन विभाग का विश्राम गृह और पास में यहीं गुप्तकालीन स्थापत्य स्थापत्य कला का उत्कृष्ट प्रतीक ’गुप्ता मंदिर’ है। ग्राम के उत्तर में विख्यात दशावतार मंदिर और शासकीय संग्रहालय है। पूर्व में पहाड़ पर उसके दक्षिणी-पश्चिम के कोने में जैन मंदिर और अन्य स्मारक हैं।

तलहटी की धर्मशाला से,पहाड़ी पर स्थित तीर्थ 3971 फुट की दूरी पर है,जहाँ सरल चढ़ाई के साथ पक्का कोलतार मार्ग है। चढाई समाप्त होते ही पहाड़ की अधित्यका को घेरे हुये विशाल प्राचीर है जिसके पश्चिम में कंुज द्वार तथा पूर्व में हाथी द्वार है। प्राचीर के दक्षिण-पश्चिम मे ंबाराह मंदिर और दक्षिण बेतवा में किनारे नाहर घाटी और राजघाटी है। इस विशाल प्राचीर के मध्य एक प्राचीर और है जिसे ’दूसरा गेट’ कहते हैं इसी के मध्य जैन स्मारक हैं।
यहाँ के जिनालयों का निर्माण दक्षिण की द्रविण शैली से भिन्न,उत्तर की विकसित आर्य नागर शैली में हुआ है जो गुप्त काल,गर्जर, प्रतिहार और चंदेलकाल में खूब फली फूली। खजुराहो के मेदिरों में इसी शैली का विकास हुआ है।

देवगढ़ में यक्ष-यक्षियों,इन्द्र-इन्द्राणियों और प्रतीकात्मक देवताओं की मूर्तियाँ अगणित संख्या में यौवन का सर्वांग सौष्ठव वाला उभार तो है पर खजुराहो जैसी यौवन की उन्मत्ता नहीं। इसीलिये देवगढ़ देखकर दर्शकों का मन श्रृंगार-वासना से नहीं अपितु गहन अध्यात्म से भर जाता है। देवगढ़ में प्रेमासक्त युगलों का भी अंकन है पर कला वैशिष्ट्य,लावण्य और अनुरागमयी संयत मुद्रा के कारण ही वे कुछ लीक से हटकर हैं।

विशेषाकर्षण यहाँ पाश्र्वनाथ की शासन देवी पद्यावती अपने पति की गोद में बैठी हुई अपने साथ बैठे पुत्र के प्रति जो वात्सल्य भाव प्रदर्शित करती है वह वात्सल्य और ममत्व का अत्यंत प्राणवान अंकन है। यहाँ के मेदिरों में 18 प्रकार की आधुनिकतम केश विन्यास शैलियाँ उत्कीर्ण हैं जिनके दर्शन अन्यत्र दुर्लभ हैं। प्रमुख यक्षी मूर्तियों में अंबिका,चक्रेश्वरी,पद्यावती और गंगा-यमुना की मूर्तियाँ बहुतायत में उपलब्ध हैं। सरस्वती की अलंकृत कलाकृतियों,धरणेन्द्र-पद्यावती और साहू जैन संग्रहालय में स्थित अद्वितीय बाहुबली और नवनिधियों युक्त भरत की मूर्तियाँ यहाँ का प्रमुख आर्कषण हैं। विशेष रुप से यहाँ तीर्थंकरों के अतिरिक्त साधु-साध्वियों,आचार्य,उपाध्याय एवं श्रावक-श्राविकाओं का भी भव्य अंकन है। साधु- मूर्तियों में भरत-बाहुबली के विभिन्न अंकन के अतिरिक्त संग्रहालय स्थित कदाचित गुप्तकाल के बाद की निर्मित,तपस्या में रत बाहुबली स्वामी की अनुपम प्रतिमा अद्वितीय कलाकृति है। सादा भामण्डल,कंधों तक जटायें शरीर पर आरुढ़ लतायें जिन पर रेंगते हुये सर्प,बृश्चिक और छिपकलीयाँ पर तपस्या मे ंलीन मेरु पर्वत की भांति अडिग बाहुबली के दोनों ओर एक-एक स्त्री खड़ी लताओं को दूर हटा रही है। इन सभी से बेखबर,मूर्ति में आत्म साधना का सूक्ष्म और सजीव अंकन देखते ही बनता है। आचार्य एवं पाठशाला का अंकन भी उल्लेखनीय है। देवगढ़ ग्राम के दिगंबर जैन चैत्यालय में स्थित सं. 1333 की सर्वांग सुन्दर उपाध्याय मूर्ति शिल्प चातुर्य और उपदेश रत गांभीर्य भाव भंगिमा की दृष्टि से सचमुच अद्वितीय है।
जिनालय मंदिर संख्या 1 में पश्चिम की दीवाल पर उकरी हुई पंच परमेष्ठियों की मूर्तियाँ,मंदिर संख्या 2 में भगवान बाहुबली के सामने चक्रवर्ती भरत का नमन वाला दृश्य,मंदिर संख्या 3 में पाश्र्वनाथ की भव्य मूर्ति,चार में शैया पर लेटी तीर्थंकर की माता का अंकन,क्रमांक पाँच का सुन्दर सहस्त्रकूट चैत्यालय,देवगढ़ की अद्भुत रचनायें हैं।

मंदिर संख्या 6 में तीर्थकर पाश्र्वनाथ के दोनों ओर रचित दो विशाल नाग अन्य पाश्र्वनाथ की मूर्तियों से एकदम हटकर किया गया निर्माण है। मंदिर संख्या 7 में 13वीं शताब्दी का शिलालेख शिष्य परंपरा का प्रतीक और भट्टारकों के दो चरण फलकों के लिये महत्वपूर्ण हैं। मंदिर संख्या 8 एवं 9 सामान्य हैं परंतु दसवें मंदिर में एक पंक्ति में तीन चतुष्कोंण स्तम्भ 6 फुट ऊँचे हैं। दो स्तम्भों में ताम्र पत्र भी मिले थे। मंदिर संख्या 11-8 स्तंभों पर मंडप वाला पंचायतन शैली का है, इसके 25 फलकों में 18 पर खड़गासन एवं 7 पर पùासन तीर्थंकर मूर्तियाँ हैं। गर्भगृह में 5 मूर्तियाँ हैं। सामने मंडप में 11वीं शताब्दी की बाहुबली स्वामी की मूर्ति महत्वपूर्ण है, जिसमें बांयी ओर कुक्कुट,सर्प और वेलों के अतिरिक्त बिच्छू,छिपकली आदि उत्कीर्ण हैं। देव-युगल लताओं को दूर करते दिखाई देते हैं।

मंदिर संख्या 12 देवगढ़ का प्रमुख मंदिर है। पश्चिमाभिमुख होने के साथ ही इसमें 18 शिलाफलक हैं। 12 फुट ऊँची शांतिनाथ प्रतिमा खड़गासन में अतिशय संपन्न और अत्यंत भव्य है। साखानामदी नामक व्यक्ति द्वारा लिखाया प्रथम जैन तीर्थंकर बृषभनाथ की पुत्री ब्राहृी द्वारा अविष्कृत 18 भाषाओं और लिपियों वाला अद्वितीय शिलालेख ’ज्ञान शिला’, सं. 910 का शिलालेख,भगवान की माता का 16 स्वप्नों एवं नवग्रह का अनूठा अंकन नामोत्कीर्ण चैबीस शासन देवियाँ, बीस भुजी चक्रेश्वरी और पùावती की मूर्तियाँ,शांतिनाथ की विशाल मूर्ति,मंदिर संख्या 20 की अत्यंत मनोज्ञ महावीर वामी की पùासन मूर्ति एवं मंदिर संख्या 31 में उत्कीर्ण गंगा-यमुना,सरस्वती आदि मूतियाँ अन्य तीर्थंकरों और देव देवियों के साथ विशेष रुप से दर्शनीय हैं।

मुख्य आकर्षण-

दशावतार मंदिर-
भगवान विष्णु को समर्पित इस मंदिर को प्रारंभ में पंचयत्न मंदिर के नाम से जाना जाता था। गुप्त काल में बना यह मंदिर प्राचीन कला का एक उत्कृष्‍ट नमूना है। गंगा और यमुना के आकर्षक चित्र मंदिर के प्रवेश द्वार पर उकेर गए हैं। यह प्रवेश द्वार मंदिर के गर्भगृह तक जाता है। मंदिर की दीवारों के साथ बने गजेन्द्रमोक्ष, नर नारायण तपस्या और अनंतशायी विष्णु पैनल विष्णु पुराण के दृश्यों को दर्शाते हैं। मंदिर के निचले हिस्से में बनी मीनारें खासी आकर्षक हैं।

देवगढ़ किला-
चन्देरी से 25 किमी. दूर दक्षिण पूर्व में देवगढ़ किला स्थित है। किले के भीतर 9वीं और 10 वीं शताब्दी में बने जैन मंदिरों का समूह है जिसमें प्राचीन काल की कुछ मूर्तियां देखी जा सकती हैं। किले के निकट ही 5वीं शताब्दी का विष्णु दशावतार मंदिर बना हुआ है, जो अपनी सुंदर मूर्तियों और नक्कासीदार स्तंभों के लिए जाना जाता है।

जैन मंदिर-
देवगढ़ के 31 जैन मंदिर लोगों को काफी आकर्षित करते हैं। विष्णु मंदिर के बाद बना यह मंदिर कनाली के किले के भीतर बने हुए हैं। यह किला एक पहाड़ी पर स्थित है, जहां से बेतवा नदी का सुंदर नजारा देखा जा सकता है। छठी से सत्रहवीं शताब्दी तक यह स्थान जैन धर्म का प्रमुख केन्द्र था। मंदिर में जैन धर्म से संबंधित अनेक चित्र बने हुए हैं।

पुरातात्विक संग्रहालय-
देवगढ़ के आसपास के एकत्रित की गई अनेक मूर्तियों को इस संग्रहालय में रखा गया है। भारतीय इतिहास की विभिन्न कलाओं को यहां संरक्षित किया गया है। देवगढ़ और आसपास की खुदाई से प्राप्त की गई अनेक मूर्तियों को यहां देखा जा सकता है।

नीलकंठेश्वर-
ललितपुर (lalitpur) से 45 किमी. दक्षिण में नीलकंठेश्‍वर स्थित है। यहां के घने जंगलों में चंदेल काल का एक शिव त्रिमूर्ति मंदिर है। यह मंदिर पाली मंदिर के नाम से भी जाना जाता है। इसके प्रवेश द्वार के निकट ही विशाल कैलाश पर परम शिव मूर्ति स्थापित है। मंदिर के निकट मैदान में एक मुखलिंग है। इस मुखलिंग की ऊंचाई 77 सेमी. है और इसका व्यास 1 फीट 30 सेमी. है।

रणछोड़जी-
यह स्थान ढोरा से 4-5 किमी. दूर बेतवा नदी के तट पर स्थित है। पाली त्रिमूर्ति मंदिर के समान यहां भी एक मंदिर बना हुआ है, जहां भगवान विष्णु और लक्ष्मी की सुंदर प्रतिमांए स्थापित हैं। हनुमानजी की भी एक विशाल मूर्ति यहां देखी जा सकती है। प्राचीन काल के कुछ मंदिरों के अवशेष भी यहां दर्शनीय हैं। कुछ समय पहले यहां घना जंगल था और अनेक जंगली जानवर यहां घूमते रहते थे।

निकटवर्ती पर्यटन-
बरूआ सागर, ओरछा (orchha) और चन्देरी देवगढ़ के पास स्थित अन्य दर्शनीय स्थल हैं। इन स्थानों में अनेक शानदार मंदिर, महल और किले देखे जा सकते हैं। ओरछा (orchha) बुंदेल शासकों द्वारा बनवाए गए अनेक मंदिरों और महलों के लिए प्रसिद्ध है। चन्देरी की हस्तनिर्मित साड़ियां पूरे क्षेत्र में चर्चित हैं। बरूआ सागर अपनी झील और किले के लिए प्रसिद्ध है।

आवागमन-

वायु मार्ग-
ग्वालियर देवगढ़ का नजदीकी एयरपोर्ट है, जो लगभग 235 किमी. की दूरी पर है। ग्वालियर से देवगढ़ के लिए टैक्सी या बसें की जा सकती हैं।

रेल मार्ग-
जखलौन यहां का निकटतम रेलवे स्टेशन है जो देवगढ़ से 13 किमी. दूर है। झाँसी (Jhansi)-बबीना पैसेंजर ट्रैन से यहां आसानी से पहुंजा जा सकता है। ललितपुर (lalitpur) यहां का अन्य प्रमुख रेलवे स्टेशन है जो देवगढ़ से 23 किमी. दूर है।

सड़क मार्ग-
आसपास के शहरों से सड़क मार्ग के माध्यम से आसानी से देवगढ़ पहुंचा जा सकता है। झाँसी (Jhansi), ओरछा (orchha), ललितपुर (lalitpur) , माताटीला बांध, बरूआ सागर आदि स्थानों से नियमित बसें और टैक्सियों देवगढ़ के लिए चलती हैं।

Map of Devgarh, Uttar Pradesh - देवगढ़