वक्त के तकाजे में
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सुबह -सुबह
इन पहाड़ों पर रोज चढ़ना
और दिन भर इन पर गुजरना
बड़ा कष्टप्रद होता है।
चारों तरफ फ़ैली हुई धुंध का छा जाना
और पहाड़ों का धुंआ उगलना
परिस्थितियों को बड़ा यातनामय बना देती है
परन्तु इसके बावजूद -
इस परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है।
कुहासों को पार कर लेना
या पहाड़ों पर चढ़ जाने से ही
रौशनी नहीं मिलाती है।
सिर्फ क्षितिज में फँसे
सूर्य को देखकर -
रौशनी का आभास नहीं लगाया जा सकता
रौशनी के लिए शरीर से गिरते हुए
पसीने व् खून की भी जरूरत होती है।
जो क्षितिज में टंगे,
सूर्य की रौशनी को -
सार्थक बनाने के लिए बहुत जरूरी है।
वक्त के तकाजे में -
सिर्फ बौखलाहट से रौशनी नहीं मिलती
रौशनी के लिए इन पहाड़ों के अंदर भी -
गुजरना पड़ता है।
मेरे दोस्त!
इस पूरे देश के लिए -
रोजी और रोटी की मजबूरी है
इसलिए -
पहाड़ों में झाँकने की तकनीक भी -
सीखनी जरूरी है।
एयरकंडीशन मकान में बैठकर
सिर्फ योजनाओं पर बहस करने से -
परिस्थितियों के चेहरे नहीं साफ़ हो सकते
पहाड़ों पर चढ़ना ,कुहासों को पार करना-
और पहाड़ों के अंदर झाँकने के बाद ,
इनमें गुजरकर कुछ पाने के लिए -
खून व पसीने को एक करने की जरूरत होती है।
तब कहीं परिस्थितियों के चेहरे -
साफ होते हैं।
जहाँ तुम पड़े हो -
वहाँ भी खून व पसीने से उत्त्पन्न ,
रौशनी की ज़रूरत है।
देखो ,पहचानो ,झाँको----
कहीं वह जगह भी तो
इन पहाड़ों,खदानों ,खेतों
के ही तो समानांतर नहीं है।
(प्रमोद कुमार श्रीवास्तव )
३३ वर्ष पूर्व प्रकाशित /प्रसरित स्व कविता से