इस मरणधर्मा संसार में कुछ महान आत्माएं ऐसी आती हैं, जो इस भौतिक जीवन के समाप्त हो जाने के बाद भी नही मरती। काल का गहरा आवरण भी उनकी जीवन गाथाओं को धुंधला नहीं बना सकता, उनकी स्मृतियों को नही मिटा सकता। भगवान ऋषभदेव, राम, कृष्ण, बुद्ध और महावीर आदि महापुरूषों को हजारों-लाखों वर्ष बीत गए। परन्तु वे आज भी जीवित हैं और युग-युगान्तर तक जीवित रहेगें। उनका जीवन, उनका उपदेश हमें आज भी वही प्रेरणा, वही ज्योति देता है जो उनके युग में देता था। भले ही उनका भौतिक शरीर नहीं रहा, परन्तु उनकी आध्यात्मिक मृत्यु न हुई है और न कभी होगी।
सन्त जीवन अपने लिए नहीं पर के लिए होता है। वह अपने सुख की, अपने आराम की, अपने स्वार्थ की चिन्ता नहीं करता है। वह सदा सर्वदा दूसरों के हित में लगा रहता है। वह प्रकृति की तरह उदार भाव से बिना मांगे सम्पूर्ण प्राणिमात्र को सुख व शान्ति की राह दिखाता है। वह मेघ की तरह एक दिशा में नहीं दसो दिशाओं में शत्-शत् धारा से बरसता रहता है। ऐसे ही संघ गौरव, उपप्रवर्तक, परमसेवाभावी पूज्य गुरूदेव श्री प्रेमसुख जी महाराज श्रमण संस्कृति के महान संतों में से एक हैं।
गुरू प्रेमसुख जी महाराज का जीवन जितना कल्पनातीत है, उतना ही अलौकिक भी। उनके विचारों व चिन्तन के बारे में विशेष सामग्री तो लिखित में उपलब्ध नहीं है, किन्तु आज के सामाजिक परिप्रेक्ष्य में उनके चिन्तन व विचारों की महती आवश्कता है। आगम व शास्त्रों के ज्ञान से दूर किन्तु सभी आगम शास्त्रों का ज्ञान उनके आचरण में सहज ही समाया हुआ था। गुरूदेव श्री प्रेमसुख जी महाराज के जीवन को जानना प्रत्यक्षतः ईश्वर को जानने जितना दुष्कर कार्य है। अपने जीवन में आपने अनेक चमत्कारपूर्ण कार्य किये हैं सेवाभावना की उत्कृष्ट साधना से प्राप्त ‘‘परमसेवाभावी‘‘ की उपाधि को गुरूदेव श्री जी ने पूर्णतया चरितार्थ किया था। आपने सेवाधर्म को ही सर्वस्व मानते हुए अपने को सेवा कार्यों में संलग्न किये रखा। अपनी इसी पुष्ट विचार धारा की विजय पताका आपने जीवन पर्यन्त जैन समाज के कोने-कोने में फैलाया।
काल के प्रवाह में प्रवाहमान होते जा रहे धर्म को सार्वजनिक धर्म बनाना ही लोक हितकारी गुरूदेव श्री प्रेमसुख जी महाराज के जीवन का प्रयोजन था। विचारों मे दृढ़ता, अन्तःकरण में भव्य करूणा, चिन्तनपूर्ण धार्मिक जीवन यही गुरूदेव श्री जी का समग्र जीवन व्यक्तित्व है। गुरू प्रेमसुख रूपी सेवापराणता का यह निष्कंप दीप युगों-युगों तक इसी प्रकार से प्रकाष विकीर्ण करता रहे।
आपश्री जी के तीन शिष्य हैं-प्रथम, संघ रत्न उपाध्याय श्री रविन्द्र मुनि जी म., द्वितीय, श्रमण संघीय सलाहकार पूज्य श्री रमणीक मुनि जी म. सा. एवं तृतीय पंडित रत्न, शास्त्री श्री उपेन्द्र मुनि जी म. सा.। जो आपश्री जी की दी गई प्रेरणा व प्रबल शिक्षाओं को प्राप्त कर पारस्परिक, मंगल मिलन की भावना तथा आपके बताए सेवामार्ग पर चलने का हर संभव प्रयास करते हैं। आपके जीवन काल व बाद में आपकी प्रेरणा से अनेक संस्थाएं शिक्षा व स्वास्थ के क्षेत्र में कार्यरत हैं।