श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग, Aunda,
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नागेश्वर ज्योतिर्लिंग शिल्प एवं इतिहास

60000 वर्ग फीट में विस्तारित शिवतीर्थ का प्रांगण 6 मीटर ऊंची प्राचीर से सुरक्षित है। जिसमें चार प्रवेश द्वार हैं। भव्य परिसर के मध्य में लगभग 7200 वर्गफीट क्षेत्र में फैले 75 फीट चौड़े 150 फीट लम्बे तथा 8 फीट ऊंचे काले प्रस्तर खण्डों के चबूतरे पर स्थित इस शिवालय के 60 फीट ऊपरी भाग पर कलश है। चूने की चुनाई में श्वेत आभा वाला शिखर 31 फीट ऊंचाई लिए हुए हैं। यह जीर्णोद्धार कार्य पुण्यश्लोका महारानी अहिल्या बाई होलकर की देन है। आधारशिला रहित इस शिवालय का शिल्प सौष्ठव देखकर ऐसा लगता है, मानो शिल्पाचार्यों ने अपने जीवन भर की साधना को इन प्रतिमाओं में उड़ेल दिया हो। भूपृष्ठ से ऊपर तक 60 पट्टिकाएं तो शिल्पण का अभिनव प्रादर्श हैं, ऊपर की पंक्तियों में (जिन्हें शिल्प शास्त्र में थर की संज्ञा दी गयी है) गजमालिका, अश्वदल, सैन्य बल और युद्ध प्रसंगों का अनूठा शिल्पांकन है। शिवालय की उत्तराभिमुख भीति पर विष्णु, पूर्वाभिमुख भीति पर ब्रम्हा और दक्षिणाभिमुख भीति पर गंगा पार्वती के साथ रूद्र विराजे हैं। नागविभूषित शिव प्रतिमा का ‘सृष्टि विवर्तक’ ताण्डव नृत्य, रावण गर्वहरण प्रतिमा में वीरासन दशानन, सर्वप्रकाशक शिव और त्रैलोक्यजननी पार्वती का आनंद सिंधु में माधुर्य दर्शाता स्वरूप और शिव-परिवार की मृणमूर्ति का अदभुत निष्पादन उत्कृष्टता के प्रतिमान स्थापित करता दिखायी देता है। स्थापत्य कला की पराकाष्ठा दर्शाते स्वर्ग-मृत्यु और पाताल लोक के शिल्प, महाभारत तथा रामायण कालीन संदर्भों का पाषाण में प्रगटीकरण, यति, यक्ष, यक्षिणी का नरवशिखान्त सौंदर्य, बज्रटीका, कंगन, अंगूठी, मौक्तिकमाला, अंग-प्रत्यंगों का उठाव लास्य व लावण्य पूर्ण शिल्प मंदिर की बाहरी दीवारों पर सुशोभित है।

श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के उपाध्येय, पण्डित दर्शन नागनाथराव पाठक बताते हैं कि स्वयं विश्वकर्मा ने नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के शाश्वत धाम की सर्जना की। शिवालय के निर्माण में प्रयुक्त काला पाषाण सोलह कोस दूर से लाया गया और इसे लाने वाले वाहनों के काष्ठ के पहियों की गति को यथावत बनाये रखने के लिए उपयोग में आने वाले ‘ब्लेक आॅइल’ पर 89000 कोटि स्वर्णमुद्राओं का व्यय आया। श्री पाठक के अनुसार ईसवीं सदी के प्रारम्भ से 14वीं सदी तक इस क्षेत्र में सातवाहन, उत्तर चालुक्य, पूर्व चालुक्य, राष्ट्रकूट, कदंब, वाकाटक सिलाहार और यादव राजघरानों द्वारा शिवालय की व्यवस्था हेतु आर्थिक सहायता दी जाती रही। वाशी के वाकाटक राजाओं द्वारा दिया-बाती हेतु सहायता राशि दिए जाने संबंधी शिलापट्टिका भी मिली है। कौंडिल्यपुर में हुए उत्खनन से प्राप्त मयूर खण्डी ताम्रपट से नरेश तृतीय गोविन्द के औंढा गांव आकर श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने के प्रमाण मिलते हैं साथ ही दक्षिण में कनकेश्वरी देवी का मंदिर होने की भी पुष्टि होती है। सातवाहन नरेशों के भी जिन्होंने 460 वर्षों तक राज्य किया श्री नागेश्वर ज्योतिर्लिंग में दर्शन करने का उल्लेख आरव्यायिकाओं में मिलता है।

हेमाड़पन्तीशैली में निर्मित अलंकृत मंदिर शिल्पण

महाराष्ट्र के यादवकालीन अलंकृत मंदिरों की भांति यह मंदिर भी हेमाड़पन्तीशैली में निर्मित है। प्राचीन इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विशेषज्ञ डाॅ. शिवाकांत वाजपेयी के अनुसार संरचनात्मक दृष्टि से यह शिवालय हेमाड़पन्त शैली में निर्मित है। ब्लैक स्टोन और ‘इण्टरलाॅकिंग’ वैशिष्ट्य लिए मंदिर पंचायतन शैली में निबद्ध है। अर्थात् मूलरूप से मंदिर के चारों कोणों पर देवी-देवताओं के प्राचीन मंदिर स्थित हैं। मंदिर के अष्टकोणीय स्तम्भों के गोलाई लिए हुए भव्य आकार को कारीगरी का बेहतर प्रादर्श हैं। आज के दौर की लेथ मशीनों के बगैर इस तरह की गोलाई का शिल्पों में अवतरण बिरले ही देखने को मिलता है। ‘सिंगल स्टोन’ से निर्मित विशालकाय सीलिंग’ और इस मंदिर के भीतर और बाहर की बेजोड़ शिल्पकारी भी हेमाड़पन्ती शैली का अप्रतिम उदाहरण है, जो इसे अद्वितीय भव्यता प्रदान करती है।
मंदिर का प्रवेश द्वार पश्चिमाभिमुख है, द्वार पर दोनों ओर जय-विजय हैं। द्वारपाल के स्वरूप सिंहाकृति कीर्ति मुख उत्कीर्ण हैं । शास्त्रों के अनुसार शिवालयों की संरचना हेतु कीर्तिमुख, प्राचीर, जलतीर्थ, प्रविष्टि के लिए चढ़ने वाली सीढ़ियों और गर्भगृह में उतरने वाली सीढ़ियों के साथ ही गणेश-भैरव प्रतिमाओं की उपस्थिति अनिवार्य बताया है। कीर्ति मुख की कथा भी बड़ी अनोखी है। एक पराक्रमी विकराल सिंहस्थ पुरूष जिसकी व्युत्पत्ति भोलेनाथ की भृकुटि से हुई थी तृष्णावश राहू का भक्षण करने को ज्यों ही प्रस्तुत हुआ, त्यों ही शिव ने उसे ऐसा न करने को आदेशित कर दिया, लेकिन विवशतावश वह स्वयं के पैर, धड़ और हाथ को खाने लगा। स्वयंप्रकाश परमेश्वर शिव ने उसके शीष को अभयदान दे दिया यह कहकर कि प्रत्यक्ष पूजा से पूर्व कीर्ति मुख के सम्मुख नतमस्तक होना हर शिवोपासक के लिए श्रेयस्कर होगा। शिवालय के भीतर पहुंच शिल्प की दृष्टि से समग्र सम्पूर्णता जैसी शिवालय के बाह्यरंग में दृष्टव्य है उतनी ही विलक्षणता अंतरंग में भी दर्शित होती है। इस ज्योतिर्लिंग मंदिर की द्वादश कोणीय छत चक्राकार है, बीच में वर्तुलाकार मण्डप है, घूमट अष्ठकोणीय है जो अष्ठकोणीय स्तम्भों पर आधारित है। तोरण, गोपुर, सभामण्डप, गर्भगृह, प्रवेश द्वार, स्तम्भ, छत, शिल्पों से पटे हुए हैं। अधिप्रत्यादि देवगणों की विविधाकृतियां, नवग्रह विष्णु, अग्नि, कश्यप, ऋषि, ब्रम्हा त्रिदेव के शिल्प कला का उच्चतम प्रतिमान स्थापित करते दिखते हैं हर स्तम्भ पर उकेरी गईं औंधी सर्पसरंचनाएं द्योतक हैं इस बात की, कि औंधा के अपभ्रंश स्वरूप ही कालान्तर में औंढा शब्द प्रचलन में आया होगा।

सर्वथा विस्मयकारी गर्भगृह व्यवस्था

अलंकृत द्वार शाखा से प्रविष्ट होकर भाविक पंक्तिबद्ध होकर ही गर्भगृह में पहुंच सकते हैं, यहां गर्भगृह सभामण्डप के समानान्तर नहीं है। संकीर्ण मार्ग से होते हुए सीढ़ियों से निज मंदिर के गर्भतल में उतरने पर गर्

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