भारत विकास परिषद्
हम सबके लिए भारत विकास परिषद् एक स्वप्न भी है और स्वप्न का आकार भी। यह एक संस्था भी है और आन्दोलन भी। यह संस्था भारतीय दृष्टि से उपजा हुआ, सम्पर्क से अभिसिंचित, सहयोग के हाथें से निर्मित, संस्कार के हृदय से स्पन्दित, सेवा की अंजुरी में समर्पण का नैवेद्य है।
स्मृतियों के वातायन से देखता हूँ तो आज से लगभग 40 वर्ष पूर्व की एक संध्या समय की परत मेरे आँखों के सामने उभरती है। लाला हंसराज जी ने मुझे एक प्रीतिभोज में मुख्य अतिथि मनोनीत किया और कहा कि मुझे इस संस्था को दिशा बोध देना है। तब मैं एक निर्दलीय सासंद (सदस्य, तीसरी लोक सभा) था। लाला जी और मेरे बीच प्रगाढ़ स्नेह संबंध था। भारतीय संस्कृति के प्रति मेरी आस्था और प्रतिबद्धता ही उस संबंध का अंकुर और उत्स था। मैंने गंभीर और परिहास के मिश्रित लहजे में आदरणीय लाला जी को उस संध्या में पूछा कि मधुरता से अपना भाषण परोसूँ या कुछ सा़फगोई भी। ठहाका लगाकर लाला हंसराज जी ने कहा, केवल मीठा खाकर भोजन का आनन्द कैसे मिलेगा। तब मैंने अपने भाषण में भारतीय संस्कृति और विकास के अनेकानेक आयामों की चर्चा करने के बाद उपसंहार में कहा कि आप इसे अन्यथा न लें तो मैं कहना चाहूँगा कि राजधानी की एक अट्टालिका की छत्त पर बैठ कर, प्रीतिभोज के बाद, सभा विसर्जीत कर देने में भारत और भारत का विकास कैसे सार्थक और अग्रगामी होगा। मैंने तब लाला जी एवं डा॰ सूरज प्रकाश जी की तरफ मुखातिब होकर कहा कि भारत के विकास की तीर्थयात्रा में समूचे भारत के सपनों और संकल्पों को जोड़ना होगा, भारत विकास परिषद् को भारतव्यापी बनाना होगा, सम्पर्क के स्रोत से भारतीय जनशक्ति की गंगा को समर्पण तक ले जाने के लिए भारत विकास परिषद् को भगीरथ बन कर समर्पित अभियान और आन्दोलन का अश्वमेघ यज्ञ करना होगा। मुझे अब भी याद है, मैंने इस संध्या में कविवर जयशंकर प्रसाद की इन पंक्तियों को सुनाकर अपने वक्तव्य को विराम दिया थाः-
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से,
प्रबुद्ध शुद्ध भारती,
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला,
स्वतंत्रता पुकारती,
अमर्त्य वीर पुत्र हो।
बढ़े चलो, बढ़े चलो।।
लाला हंसराज जी उठ खड़े हुए, मुझे स्नेहातिरेक से आलिंगन किया और कहा, अब आपने हमें नई दिशा दी है, तो नया विधान भी बनाइए और इस नये राष्ट्रीय प्रवर्तन की बागडोर संभालिए। भाई डा॰ सूरज प्रकाश गद्-गद् होकर बोले, हम आज ही संकल्प लेते हैं कि आप का यह सपना साकार करेंगे। और फिर तत्काल पूछा, बताइए मैं कल कब आपके पास आऊँ।
उस दिन के बाद डा॰ सूरज प्रकाश जी से एवं अन्य प्रारंभिक भारत विकास पार्षदों से मेरे जो अन्तरंग संबंध बने, जिस प्रकार वो मुझे भारत विकास परिषद् के हर तार में धागों की तरह बुनते गये, जिस प्रकार भारत विकास परिषद् से मेरा एकात्म भाव संवर्धित होता रहा, वह मेरे जीवन में एक सार्थक आत्मीयता की अविस्मरणीय कथा है। डा॰ सूरज प्रकाश जी के अद्वितीय कर्मयोग के पद्चिन्हों का अनुसरण किया है सभी कार्यकर्ताओं ने, किन्तु प्यारे लाल राही जी की निष्ठा ने परिषद् के लिए नई राहें, नए राजपथ ओर जनपथ निर्माण किए। स्व॰ श्री न्यायमूर्ति देश पांडे, हमारे आदरणीय श्री जस्टिस हंसराज खन्ना एवं श्री जस्टिस रामा जायस ने सक्षम मार्ग दर्शन किया।
सात वर्ष मैं विदेश में रहा, भारत के राजदूत के रूप में भारत की संस्कृति और उसके विकास की दृष्टि को अभिव्यक्ति देता रहा। इस पूरे समय में भारत विकास परिषद् की स्मृतियाँ मेरे हृदय में धड़कन की तरह प्रतिपल मेरे साथ रही।
मैं ब्रिटेन से लौट कर स्वदेश आया तो भारत विकास परिषद् के विराट्, सुविशाल, भारतव्यापी विस्तार को देखकर विस्मित और उल्लासित हुआ। मैं कृतज्ञता और हर्ष का अनुभव करता हूँ कि विदेशों में एवं भारत के नगर-नगर में आज भारत के सर्वतोमुखी विकास के पवित्र मंत्र की मधुरिम रागिनी सुनाई दे रही है। लगता है भारत के विकास की समग्र दृष्टि एक प्रेरक ऋचा की तरह हमारी राष्ट्रीय चेतना को जोड़ते हुए, जगाते हुए, ‘‘संगच्छध्वम् संवदध्वम् सं वो मनांसि जानताम्’’ का अमृत पाथेय लिए एक नई संचेतना की सृष्टि करने को उद्यत है। इस दृष्टि और उपक्रम का नाम है भारत विकास परिषद्। सम्पर्क से सहयोग, सहयोग से संस्कार, संस्कार से सेवा और सेवा से समर्पण की तीर्थयात्रा का नाम है भारत विकास परिषद्। जो भारत के स्वर्णिम अतीत को हीरक भविष्य के साथ जोड़ने का सेतु-निर्माण करने के लिए कृतशपथ है, उसका नाम है भारत विकास परिषद्।
भारत विकास परिषद् क्या है?
भारत विकास परिषद् क्या है? अक्सर इस प्रश्न का उत्तर देते समय कि मैं आजकल क्या कर रही हूँ, मुझे इस प्रश्न से भी रूबरू होना पड़ता है। और उत्तर में यह कहना कि भारत विकास परिषद् एक गैर सरकारी संस्था (N.G.O) है, परिषद् के बारे में कोई सार्थक उत्तर प्रतीत नहीं होता। कम से कम मुझे। प्रश्न पूछने वाला भी शायद इस उत्तर से संतुष्ट नहीं होता। तो भी कुछ और जिज्ञासा उसके मन में उस उत्तर के बाद उठती दिखाई नहीं देती। किन्तु मुझ में अवश्य यह एक छटपटाहट है, कुछ और कहने की अकुलाहट छोड़ जाता है, और मैं अपने आप से ही समझने की चेष्टा करने लगती हूँ कि भारत विकास परिषद् क्या है?
तीन शब्दों से मिल कर बना यह नाम अपने आप में पूरा दर्शन समेटे है। भारत, जैसा कि नाम से ही विदित होता है मात्र कोई भूगोल नहीं है, यह मात्र पृथ्वी का टुकड़ा नहीं है, सागर और पर्वत श्रृंखलाओं का योग मात्र नहीं है। यह कुछ सहस्राब्दियों का इतिहास मात्र भी नहीं है। यह लक्ष्योन्मुखी तथा प्रक्रियोन्मुखी शब्द है। इस शब्द से ही पता लगता है कि यह मूल्यों की समष्टि की ओर निरन्तर अग्रसर होने का नाम है। और इस समष्टि में `भा´ अर्थात् `प्रकाश´ में `रत´ रहने वाला `भारत´ है। जो निरन्तर ज्ञान की साधना में रत रहता है वही भारत है। प्रकाश ज्ञान का बोधक है और अंधकार अज्ञान का। इसी लिये मैंने कहा कि इस शब्द में उद्देश्य और क्रिया दोनों अन्तर्हित हैं। फिर प्रश्न उठता है ज्ञान क्या है? क्या कुछ जानकारियों को एकत्रित कर उन्हें कण्ठस्थ कर कुछ डिगि्रयाँ प्राप्त करने का नाम ज्ञान है? अथवा धनोपार्जन की क्षमता को अधिक से अधिक प्राप्त करने का नाम ज्ञान है? अथवा भौतिकी के कुछ नियमों की जानकारी ज्ञान है, अथवा कुछ प्रकल्पनाओं के आधार पर मानव मस्तिष्क की तर्क शक्ति के विशद खेल का नाम ज्ञान है। संक्षेप में कहें तो भौतिकी, रसायन एवं गणित की जानकारी का नाम ज्ञान है। पूरा विश्व अस्मरणीय काल से लगा हुआ है मानवशरीर की रचना एवं उसमें उत्पन्न होने वाले विकारों की जानकारी एवं उनका निदान ढूँढ़ने में। किन्तु जैसे-जैसे ढूँढ़ते जाते हैं वैसे-वैसे पहेली और उलझती जाती है। आप कहेंगे भारत विकास परिषद् क्या है? इसे समझाने की बात करते-करते मैं इतना विषयान्तर क्यों कर रही हूँ किन्तु वस्तुत: यह इस प्रश्न के उत्तर का केन्द्र है। भारतीय मनीषा ने इन सभी विद्याओं को अप्रमा की श्रेणी में रखा है।
भारतीय चिन्तन परम्परा यहां भी पाश्चात्य परम्परा से भिन्नता रखती है। भारतीय चिन्तन में ज्ञान के भी दो भेद किये हैं: प्रमा एवं अप्रमा। निश्चित एवं यथार्थ ज्ञान को प्रमा कहते हैं। गणितीय ज्ञान में निश्चितता होती है किन्तु यथार्थता नहीं। अत: वह प्रमा नहीं है। दूसरी ओर प्राकृतिक विज्ञानों में यथार्थता एक सीमा तक होती है किन्तु निश्चितता नहीं होती। संशय, स्मृति, तर्क एवं भ्रम ये चारों अप्रमा (मिथ्या ज्ञान) की श्रेणी के अन्तर्गत रखे गये हैं।
अत: हमारी चिन्तन परम्परा में आत्मतत्व के ज्ञान को ही प्रमा की संज्ञा दी गई है। बाह्य जगत का ज्ञान व्यक्ति को अपने स्वत्व को समझने में सहायक नहीं होता। आत्मज्ञान ऐसा ज्ञान है जिसे जानने के बाद कुछ भी जानना शेष नहीं रहता। यह सत् है अर्थात्, चित् है अर्थात् चैतन्य तथा पूर्ण आनन्द स्वरूप है। जिसे जानने के बाद दु:खों से आत्यंतिक एवं एकांतिक निवृत्ति हो जाती है अर्थात् सदा के लिये और निश्चित् रूप से दु:खों से मुक्ति हो जाती है। यही परम पुरुषार्थ है। सांख्य दर्शन ने मोक्ष को इसी रूप में परिभाषित किया है इसी लिये अपने यहाँ कहा गया है, `सा विद्या या विमुक्तये´ विद्या या ज्ञान वह है जो आप को सभी बंधनों से, क्षुद्र स्वार्थ की सीमाओं से, दु:ख और शोक से मुक्त कर दे।
इस ज्ञान की साधना में रत है भारत।
ऐसे भारत की विकास की बात भारत के परिप्रेक्ष्य में ही हो सकती है। हम पश्चिम से उधार लिये हुए विकास के मॉडल की नकल नहीं कर सकते। हमारे लिये विकास का तात्पर्य भौतिक समृद्धि अथवा भौतिक सुख सुविधओं की विपुलता नहीं है। यह सच है कि हमारे अस्तित्व की सब से बाहरी परत भौतिक शरीर है, जो बुद्धि मन तथा इन्द्रिय युक्त है। किन्तु हमारे लिये यह शरीर साधन मूल्य रखता है स्वयं साध्य नहीं है। इसी संदर्भ में शंकराचार्य का एक श्लोक स्मरणीय है:
`पूजा ते विषयोपमोग रचना, निद्रा समाधि स्थिति:।
संचार: पदयो प्रदक्षिण विधि, स्तोत्राणि सर्वा गिरो।।
यद्यत् कर्म करौमि तत्तदखिलम्, शम्भौ तवाराधनम्´
`अर्थात् इन्द्रियों द्वारा विषयों का उपभोग भी ऐसा हो मानो वह तुम्हारी ही पूजा है, निद्रा की स्थिति भी तन्द्रा या आलस्य वाली नहीं अपितु समाधि जैसी हो और पद संचलन तुम्हारी प्रदक्षिणा जैसा हो। हे शम्भो मैं जो भी कर्म करूँ वह तुम्हारी आराधना पूजा जैसा हो।´´ कर्म योग की चरम परिणति है। यह और यही हमारे विकास की अवधारणा का चरम लक्ष्य है, यही विकास का भारतीय मॉडल है जहाँ न तो बुद्धि विलास स्वयं साध्य है, न मन और इन्द्रियों की बेलगाम इच्छाओं की शरीर के माध्यम से तृप्ति लक्ष्य है अपितु ये सभी अनुशासित, संयमित हों, आत्मज्ञान की ओर निरन्तर अग्रसित हों ऐसा मनुष्य ही विश्व की समस्त समस्याओं का निदान है।
विकास का यह मॉडल मनुष्य को शेष पशु जगत से पृथक करता है। सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जिसमें प्रकृति का अतिक्रमण करने की सामर्थ्य है और इसी लिये उसे मूल्यों के जगत का सृष्टा कहा है और इसी अर्थ में वह स्वतंत्र है अर्थात् वह किसी तंत्र (System) से बंधा नहीं है। वह अपने आप अपना तंत्र हैं। पशु भूख लगने पर, भोजन सामने आते ही उस पर टूट पड़ता है फिर चाहे उसे कितना ही प्रशिक्षित क्यों न किया गया हो। दूसरी ओर भूख न होने पर अथवा रुग्ण होने पर वह कभी भी भोजन की ओर अभिमुख नहीं होता। इसके विपरीत मनुष्य भूख लगने पर भी उपवास रखने का निश्चय कर सकता है तो दूसरी ओर बीमार होने पर भी, भूखा न होने पर भी, सुस्वादु भोजन से लालायित हो भोजन कर सकता है यह सोच कर कि चलो कोई पाचक चूर्ण खा लेंगे। और इसीलिये वह स्वतंत्र है। वह पशु से नीचे गिर सकता है तो देवत्व ही नहीं ईश्वरत्व को भी प्राप्त कर यदि सकता है। परिषद् इसी देव-मानव के निर्माण की प्रक्रिया में रत है। ऐसे मनुष्य की जो `सर्व हिताय लोक हिताय´ समर्पित हो, दूसरे की पीर जिसकी आंखों को नम कर दे। स्वार्थ से परार्थ और फिर परमार्थ तक की यात्रा का नाम विकास है। यही हमारी पहचान है विश्व में, जिसके लिये भारत जाना जाता है। अपनी गरीबी, अपनी बेरोजगारी, अपनी अशिक्षा सबके बावजूद आज भी भारत का जन इसी आदर्श को सर्वोपरि मानता है। इस भारतीय चेतना को फिर से रेखांकित करना, गति देना, इसे विश्व के हर कोने तक पहुंचाना जिस से यह सृष्टि मनोरम बनी रहे, भारत विकास परिषद् का एजेंडा है।
राम और कृष्ण की, बुद्ध और महावीर की, पातंजलि और कणाद की, शंकराचार्य और रामानुज की, रामकृष्ण और विवेकानन्द की एवं दयानन्द की यह पुण्य श्रृंखला अनवरत आगे बढ़ती रहेगी यह हमारा विश्वास और आस्था दोनों ही है। अस्मिता की इसी तीर्थ-यात्रा का नाम भारत विकास परिषद् है और आप और हम इस यात्रा के सहयात्री हैं। रवीन्द्र नाथ ठाकुर ने एक स्थान पर कहा है :
`अपना प्रश्न पत्र भिन्न है अत: उत्तर भी भिन्न होगा। जीवन और जगत को देखने का हमारा नजरिया भिन्न है और इसीलिये हमारी समस्या दूसरी है, दूसरी ही नहीं व्यापक भी है। अत: निश्चय ही समाधान भी हमारी माटी की गन्ध से ही मिलेंगे और वे समाधान ह